आखिर मैंने पढ़ ही लिया मोहन शोत्रिया जी की कविता --- ६३ बरस पहलेकी बात है ,डरते दुबुकते सुबुकते सुबुकते रुक रुक कर विराम लेकर .क्योंकि आसान नहीं है इस कविता की तपिश से गुजरना . मैं फस गया हूँ भावनाओ के तूफ़ान में . एक एक कर याद आ रही है वो बाते जो कभी पढ़ा था या महसूस किया है माँ के बारे में . जब छोटा था माँ से सुनता था एक कविता-- माँ फिर क्या होगा उसके बाद ........ उसकी अंतिम पंक्तिया .....मैंबूढी हो कर मर जाउंगी ..पूरी पंक्ति याद नहीं आरही है .पर तब भी इस लाइन से दिल दहल उठता था जब इसके मायने पूरी तरह नहीं समझता था.कुछ भी तो नहीं बदला जब नासमझ था तब भी नकारता था जीवन के इस सत्य को आज भी नकारता हूँ जब समझदारी की उम्र से गुजर रहा हूँ ,कौन खोना चाहेगा जीवन की सबसे अनमोल चीज को .जीवन का एक सत्य है जिसके पास जो नहीं है उसका महत्व वहीसमझता है --चार बरस की उम्र में ऐसा रोया की फिर कभी रोया ही नहीं .....चौबीस घंटो में एक बार गुजरता है वो दृश्य मुसलसल बिला नागा .......६३ बरस से सहेज कर रखा है कवी ने उस दर्द को तो क्यों न डूबेगा उनकी कविता का हर शब्द दर्द में. कितनी अनमोल है माँ ...याद आ रही है लीना जी की पंक्तिया ----
मेरे किसी पहने हुए कपडे में अटकी पड़ी रहेगी मेरी खुशबू
जिसे मेरे बच्चे पहन के सो जायेंगे
जब मुझे पास बुलाना चाहेंगे
मै उनके सपनो में आऊंगी
उन्हें सहलाने और उनके प्रश्नों का उत्तर देने
मै बची रहूंगी शायद कुछ घटनाओं में
लोगो की स्मृतियों में उनके जीवित रहने तक
जिसे मेरे बच्चे पहन के सो जायेंगे
जब मुझे पास बुलाना चाहेंगे
मै उनके सपनो में आऊंगी
उन्हें सहलाने और उनके प्रश्नों का उत्तर देने
मै बची रहूंगी शायद कुछ घटनाओं में
लोगो की स्मृतियों में उनके जीवित रहने तक
अनंत यात्रा से भी वापस लौट कर आती है माँ हर समाधान लिए कैसी मार्मिक पंक्तिया है कैसा गहरा लगाव है माँ का बच्चे के साथ . संभवतः एक मात्र घटना जिसमे मूल तत्त्व बार बार आता है तत्त्व की ओर .इस तरह की कविताये इम्तेहान लेती है पाठक के आँखों का ,दिल की मजबूती का .... ये कविता सच से रूबरू कराती है पर मै नासमझ कवी की उन पंक्तियों का पूरा समर्थन करता हूँ .......... माँ मरनी नहीं चाहिए कभी भी किसी की भी
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